वोटरशिप पर अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (विविध)
(1) कुछ सरकारी कर्मचारी स्वैच्छिक सेवा निवृति ले सकते हैं व कोई व्यवसाय प्रारंभ कर सकते हैं। कुछ को दक्षिण एशियाई प्रशासन के प्रस्तावित तंत्र में स्थानांतरित किया जा सकता है।
(2) सरकारी क्षेत्र के अधिकांश कर्मचारी तृतीय व चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी हैं, जिनकी संख्या 75 प्रतिशत से भी अधिक है। इन कर्मचारियों की पत्नियां वोटरशिप के समर्थन में उतरेंगी, क्योंकि इन कर्मचारियों का वेतन इतना कम होता है कि उनकी पत्नियां घरेलू नौकरानी जैसा जीवन जीती हैं।।
(1) सामाजिक वर्ण व्यवस्था के कारण ब्राहृमण के बेटे को जन्म लेते ही सम्मान मिल जाता हैं। इसके विपरीत नीची जाति में जन्म लेने के कारण ऐसे बाप के बेटे को जन्म लेते ही अपमान का आरक्षण मिल जाता है। ऊँची जाति के आदमी द्वारा उसे चारपाई से नीचे जमीन पर बैठने को कहना, डांटना-फटकारना, बात बात में गाली देना, मारना-पीटना आम बात है. जातीय स्वाभिमान की राजनीति करने वाले नेता लोगों को ये बहुत तकलीफ देती है. लेकिन आर्थिक वर्ण व्यवस्था तकलीफ नहीं देती.
(2) आर्थिक वर्णव्यवस्था के कारण अमीर के बच्चे को बिना काम कराये और बिना कोई परीक्षा लिए ही सरकार उत्तराधिकार कानूनों से अमीर बना देती है। चूंकि सामंतों और धनवानों के बच्चे बचपन से यह देखते रहते है कि मेरे पिता मजदूरों को चारपाई से नीचे जमीन पर बैठने को कहते थे, डांटते-फटकारते, गाली गलौज करते थे, मारते-पीटते थे, उसे अपमानित करते थे। इसलिए यही आदत बच्चे को भी पड़ जाती है। वस्तुतः गरीब का अपमान वह इसलिए कर पाता है, क्योंकि वह जमीन का और पैसे का मालिक होता है। उसकी जमीन पर काम करने के लिए और पैसा पाने के लिए काम करके पेट भरना गरीब की मजबूरी होती है। समस्या का यह ताला पैसे की चाभी से खुलेगा। अपने समाज के आदमी को वोट देकर चुनाव जितने से नहीं।
(3) जातीय स्वाभिमान की राजनीति करने वाले नेता कहते है कि "सामाजिक विषमता समाप्त हो जाने पर आर्थिक विषमता स्वयं समाप्त हो जायेगी"। यह अब कुतर्क साबित हो चुका है. जातिवादी नेताओं की अगर यह भविष्यवाणी सही होती, तो यूरोप के राष्ट्रों में आर्थिक विषमता खत्म चुकी होती, जहां सामाजिक समानता पहले से मौजूद है।
(4) वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध आंदोलन चलाने वाला केवल वही व्यक्ति ईमानदार हो सकता है, जो दोनों तरह की वर्ण व्यवस्था उखाड़ने की बात करता हो। अगर वह दर्द के विरुद्ध भाषण दे और बीमारी की अंदर ही अंदर रक्षा करे, तो समझिए कि वह साजिश करने वाला ऐसा डाक्टर है जो चाहता है कि बीमारी ठीक न हो, बस दर्द ठीक हो और उसकी दुकान चलती रहे।
(5) अपनी जाति, धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र, भाषा और देश के स्वाभिमान की बातें करने वाले नेता ज्यादातर अपने परिवार की सम्पन्नता के लिए काम करते है. अपने समुदाय के लोगों को पैसे की तंगी में रखने के लिए काम करते है. वोटरशिप की बात सामने आने के बाद स्वाभिमान की राजनीति करने वाले नेताओं की कलाई खुल गयी है. अब अपने समाज के लिए आंसू बहाने वाला घड़ियाल समझने लगे है.
(6) जो अपनी जाति-धर्म-क्षेत्र के स्वाभिमान की लड़ाई लड़ता है, वह अपनी जाति, धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र, भाषा और देश के आम लोगों के साथ आर्थिक बलात्कार को पसंद करता है। किन्तु लोगों को धोखा देने के लिए लोगों को सम्पन्नता दिलाने का अभिनय करता रहता है. जिस प्रकार एक लड़का बहुत दिनों तक लड़की का अभिनय नहीं कर सकता। उसी स्वाभिमान की राजनीति करने वाला नेता जनता के आर्थिक शुभचिंतक होने का अभिनय बहुत दिनों तक नहीं कर सकते।
(7) नए विचार के साथ नेतृत्व की नई पीढ़ी भी पैदा होती है। यह पीढ़ी स्वाभिमान की नकली लड़ाई वाले नेताओं के दुष्प्रचार को विफल कर देगी। वोटरशिप की नाव डगमगाये भले ही, लेकिन नई पीढ़ी इसे डूबने नहीं देगी।
(1) जब किसी वैज्ञानिक ने वायुयान का आविष्कार करके लोगों को उसमें बैठने को कहा। लोगों ने विश्वास नहीं किया कि इसमें बैठकर आदमी उड़ भी सकता है।
(2) लोग कहते थे कि धरती चपटी है. सूरज इसके चारों तरफ घूमता है। गैलीलियों नाम के वैज्ञानिक ने कहा कि धरती गोल है. धरती स्वयं सूरज के चारों तरफ घूमती है। बात गले नहीं उतारी थी, लेकिन मानना पड़ा।
(3) मोबाइल, टेलीफोन व इण्टरनेट ने असम्भव कहे जाने वाली बात को सम्भव कर दिखाया। सैकड़ों मील दूर बैठे दो लोग एक दूसरे के मन की बात जान लेते हैं.
(4) कैप्लर नाम के वैज्ञानिक ने भविष्यवाणी की कि 10.2 किलोमीटर प्रति सेकेण्ड की गति से ऊपर फेका गया पिण्ड नीचे नहीं गिरेगा. लांचर से उपग्रहों को आसमान में फेंका गया। वे धरती पर वापस नहीं गिरे। आसमान में ही रह गये। जिसकी वजह से रेडियो- टीवी-मोबाइल व इण्टरनेट आज चल रहे है। पत्थर ऊपर फेंकने से ऊपर ही रह जायेगा, यह असम्भव लगाने वाली बात मानना पड़ा।
(5) अधिकांश लोगों को भरोसा नहीं था कि राजा की गद्दी पर उसके बेटे की बजाय प्रजा का बेटा बैठ जायेगा।
(6) किसी ने नहीं सोचा था कि सीधे ग्राम प्रधानों को सरकार पैसा देगी व गाँव का विकास स्वयं उस पैसे से गाँव वाले ही करेंगे। लेकिन ऐसा हुआ।
(7) सोचा था कि जिस अंग्रेजी साम्राज्य में सूरज ही नहीं डूबता, वह साम्राज्य सिमट कर एक छोटे से देश में समा जायेगा। किन्तु ऐसा हुआ।
(1) भारत में पैदा होने वाला हर बच्चा जन्म लेते ही प्रति व्यक्ति औसत आय का स्वामी भी होता है। केवल कर्ज का स्वामी ही नहीं होता।
(2) हर बच्चे के हिस्से की औसत आय यदि सरकार उसे वापस कर दे, तो वोटरशिप की केवल 3-4 महीने की रकम से ही देश का सारा कर्ज उतर जायेगा।
(3) देश पर कर्ज है, फिर भी पांच सितारा होटलों की ऐयाशी है। देश पर कर्ज है, फिर भी हवाई यातायात में ईंधन की बेइंतहां बर्बादी है। देश पर कर्ज है, फिर भी कार में एक आदमी अकेले चल कर इंधन बर्बाद कर रहा है, ट्रैफिक की समस्या खड़ी कर रहा है और फिर लोगों की छत की कीमत पर फ्रलाईओवर पर फ्रलाईओवर बनाने में अरबों रूपये बर्बाद किये जा रहे हैं। इन साक्ष्यों को देखते हुए यह सिद्ध होता है कि देश का कर्ज वापस करने की सरकार की मंशा ही नहीं है. जब कर्ज के साथ सब कुछ चल रहा है तो वोटरशिप भी चलने में कोइ बुराई नहीं है.
(1) तब सबसे पहले सबसे कमजोर आदमी अपने से मजबूत आदमी द्वारा मार दिया जाता। जो मारता, उसे उससे भी मजबूत आदमी मार देता। अन्त में केवल एक सर्वशक्तिमान आदमी धरती पर बचता_ शेष सब मर गये होतेे। चूंकि धरती पर एक-दो आदमी नहीं, 6 अरब आदमी जीवित दिखाई दे रहे हैं। इसलिए डार्विन का सिद्धांत प्रत्यक्ष तौर पर गलत साबित हो चुका है।
(2) मानव के अनेक गुण हैं। कुछ गुणों में कोई एक आदमी मजबूत है, तो वही दूसरे गुण में कमजोर होता हैं। जो कमजोर दिखाई देता है, उसकी छानबीन की जाये, तो वही किसी अन्य मामले में बहुत मजबूत है। कोई एक आदमी सभी गुणों में मजबूत नहीं हो सकता। कोई आदमी सभी गुणों में कमजोर नहीं हो सकता। इसलिए डार्विन का सिद्धांत अधिक से अधिक जानवरों पर लागू तो किया जा सकता है। इंसान पर इसे लागू करना साजिश है।
(3) देश पर कर्ज है, फिर भी पांच सितारा होटलों की ऐयाशी है। देश पर कर्ज है, फिर भी हवाई यातायात में ईंधन की बेइंतहां बर्बादी है। देश पर कर्ज है, फिर भी कार में एक आदमी अकेले चल कर इंधन बर्बाद कर रहा है, ट्रैफिक की समस्या खड़ी कर रहा है और फिर लोगों की छत की कीमत पर फ्रलाईओवर पर फ्रलाईओवर बनाने में अरबों रूपये बर्बाद किये जा रहे हैं। इन साक्ष्यों को देखते हुए यह सिद्ध होता है कि देश का कर्ज वापस करने की सरकार की मंशा ही नहीं है. जब कर्ज के साथ सब कुछ चल रहा है तो वोटरशिप भी चलने में कोइ बुराई नहीं है.
(1) तब सबसे पहले सबसे कमजोर आदमी अपने से मजबूत आदमी द्वारा मार दिया जाता। जो मारता, उसे उससे भी मजबूत आदमी मार देता। अन्त में केवल एक सर्वशक्तिमान आदमी धरती पर बचता_ शेष सब मर गये होतेे। चूंकि धरती पर एक-दो आदमी नहीं, 6 अरब आदमी जीवित दिखाई दे रहे हैं। इसलिए डार्विन का सिद्धांत प्रत्यक्ष तौर पर गलत साबित हो चुका है।
(2) मानव के अनेक गुण हैं। कुछ गुणों में कोई एक आदमी मजबूत है, तो वही दूसरे गुण में कमजोर होता हैं। जो कमजोर दिखाई देता है, उसकी छानबीन की जाये, तो वही किसी अन्य मामले में बहुत मजबूत है। कोई एक आदमी सभी गुणों में मजबूत नहीं हो सकता। कोई आदमी सभी गुणों में कमजोर नहीं हो सकता। इसलिए डार्विन का सिद्धांत अधिक से अधिक जानवरों पर लागू तो किया जा सकता है। इंसान पर इसे लागू करना साजिश है।
(3) देश पर कर्ज है, फिर भी पांच सितारा होटलों की ऐयाशी है। देश पर कर्ज है, फिर भी हवाई यातायात में ईंधन की बेइंतहां बर्बादी है। देश पर कर्ज है, फिर भी कार में एक आदमी अकेले चल कर इंधन बर्बाद कर रहा है, ट्रैफिक की समस्या खड़ी कर रहा है और फिर लोगों की छत की कीमत पर फ्रलाईओवर पर फ्रलाईओवर बनाने में अरबों रूपये बर्बाद किये जा रहे हैं। इन साक्ष्यों को देखते हुए यह सिद्ध होता है कि देश का कर्ज वापस करने की सरकार की मंशा ही नहीं है. जब कर्ज के साथ सब कुछ चल रहा है तो वोटरशिप भी चलने में कोइ बुराई नहीं है.
(1) वोटरशिप की रकम के साथ महंगाई भत्ता जोड़कर देने से निर्धन मतकर्त्ताओं पर महंगाई बढ़ने का प्रभाव बड़ी आसानी से रोका जा सकता है।
(2) महंगाई तभी बढ़ सकती है, जब अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्र स्थिर रहे किन्तु उत्पादन गिर जाये या उत्पादन की मात्र स्थिर रहे, मुद्रा की मात्र बढ़ जाये। भारत संघ के बाजार में लगभग 37 करोड़ नये ग्राहक खरीदारी के लिये आ जायेंगे। इनकी आवश्यकतायें पूरी करने के लिए बड़ी मात्र में वस्तुओं व सेवाओं की पैदावार करनी होगी। चूंकि उत्पादन के लिए श्रम शक्ति मौजूद है, पूँजी बाजार में मंदी है, इसलिए बड़ी संख्या में उत्पादन केंद्रों की स्थापना संभव है। हाँ, थोड़े समय के लिए मंहगाई बढ़ सकती है.
(3) जितनी मात्रा में मुद्रा निर्गमन होने से मुद्रा का मूल्य गिरेगा, उससे बड़ी मात्र में निर्धन लोगों को वोटरशिप के नाम से अतिरिक्त मुद्रा मिल जायेगी। देखिये, लोक वित्त की कथा- दूध में पानी ....
(4) यदि उत्पादन घट जायेगा, तो वोटरशिप की रकम भी घट जायेगी। इससे राष्ट्र के लिए उत्पादन करने के लिए प्रेरित होंगे। लोग सकल घरेलू उत्पाद बढ़ाने के लिए एकजुट हो जायेंगे, क्योंकि बढ़ी रकम में अब उनको अपना हिस्सा भी दिखाई पड़ने लगेगा। उत्पादन बद्गाने से मंहगाई बढ़ती नहीं है घटती है.
वोटरशिप का परिणाम यह होगा कि अब मतकर्त्ता इतना जागरुक हो जाएगा कि शराब की एक थैली पर या 100 रुपये के नोट या एक साड़ी पर या ऐसे ही तुच्छ लालच के लिए अपना वोट किसी ऐसे आदमी को नहीं देगा, जिसको देने से उसकोे सालों-साल तक मिलने वाली वोटरशिप की नियमित रकम से हाथ धोना पड़े।
(1) यदि मतकर्त्ताओं को राष्ट्रीय उत्तराधिकार में मिलने वाली वोटरशिप की रकम को आर्थिक आरक्षण माना जायेगा, तो रक्त पिता के उत्तराधिकार में बच्चों को मिलने वाली सम्पित्त को भी आर्थिक आरक्षण मानना पड़ेगा। यदि वोटरशिप का विरोध किया जायेगा तो उत्तराधिकार कानून रद्द करना पद जायेगा.
(2)
वोटरशिप की प्रस्तावित रकम मतकर्त्ताओं को मिलने लग जायेगी, तो निर्धनों के कल्याण व निर्धनता दूर करने के नाम पर चल रहे तमाम मंत्रलयों व सरकारी विभागाें, सार्वजनिक तथा सामाजिक संस्थानाें की आवश्यकता ही समाप्त हो जाएगी, जो भ्रष्टाचार के बड़े अड्डे हैं। इन विभागों के बन्द हो जाने से भ्रष्टाचार का बड़ा हिस्सा समाप्त हो जाएगा।
(1) जिन पश्चिमी देशों की तरफ नकल करने के लिए देखा जाता है, उन देशों की चुनौतियां और बीमारियाँ भारत जैसे विकासशील देश जैसी हैं ही नहीं। जब किसी को दर्द सिर में हो रहा है, तो वह पेट दर्द की दवा क्याें खाये?
(2) नक़ल एक अंधे की लकड़ी है. जो अँधा नहीं है उसे लकड़ी की जरूरत नहीं है।
(3) वोटरशिप का प्रस्ताव भारत को लगभग पूरे संसार के कर्त्तव्यबोध का एहसास करता है और विकासशील देशों का नेतृत्व करने का अवसर देता है।
(4) भारतीय संस्कृति में नई चीजों के खोज, नित नूतनता की परम्परा पहले से रही है। इसीलिए यह उक्ति लोकप्रिय हो सकी- "लीक-लीक गाड़ी चले, लीकहिं चले कपूत; लीक छाड़ि तीनों चले, शायर-सिंह-सपूत’’।
(5) वोटरशिप से मिलाती जुलती योजना ब्राजील, अलास्का, नामीबिया फिन लैंड जैसे देशों में पहले से चल रहीं है. यूनीवर्सल बेसिक इनकम योजना कई देशों में लागू है। गोयल कमेटी की रिपोर्ट में इस विषय में विस्तृत जानकारी दिया है।
(1) घर-घर पैसा पहुंच जायेगा, तो उस पैसे से कुछ खरीदारी करने के लिये, लोग अपने आसपास की दुकानों पर ही जायेंगे। इससे दुकानदारों व व्यापारियों की बिक्री आज की तुलना में कम से कम दो गुना बढ़ जायेगी। कुछ दुकानदारों की बिक्री तो 20 गुना तक बढ़ जायेगी। बिक्री बढ़ेगी, तो मुनाफा भी बढ़ेगा.
लोगों को वोटरशिप की रकम मिलने लग जायेगी, तो अर्थव्यवस्था का उत्पादन जनाकांक्षा से संचालित हो जाएगा। अभी तक मुठ्ठी भर धनवानों की इच्छाओं से चल रही है.
वोटरशिप अधिकार से जितनी रकम व्यापारियों को सरकार से मिलेगी, 70% व्यापारियों की व्यापार से उतनी आमदनी ही नहीं होती. यह विषय विस्तार से समझने के लिए देखें विडिओ-
वोटरशिप अधिकार से जितनी रकम किसानों को सरकार से मिलेगी, ९५% किसानों की खेती से उतनी आमदनी ही नहीं होती. यह विषय विस्तार से समझने के लिए देखें विडिओ-
(1) गरीबों संबंधी प्रश्नोत्तर में इस आशंका का विश्लेषण किया जा चुका है.
(2) किसान, सामंती किसान व व्यापारिक किसान में अंतर किये बिना कृषि क्षेत्र के मजदूरों व किसानों के विषय में सही विश्लेषण नहीं किया जा सकता। मजदूरों का न मिलाना अपनी म्हणत से खेती का काम करने वाले किसानों की नहीं है अपितु मजदूरों की मेहनत से खेती करवाने वाले व्यापारियों की है.
(3) अर्थव्यवस्था की आर्थिक इमारत में आज मजदूर बेसमेंट के नीचे दूसरी तह में है, और किसान पहली मंजिल पर है। वोटरशिप का प्रस्ताव कार्यान्वित होने पर किसान तीसरी मंजिल पर चढ़ जायेगा, मजदूर बेसमेन्ट से निकलकर पहली मंजिल पर आ जायेगा। किन्तु यह आशंका निराधार है कि मजदूर मिलेंगे ही नहीं। हाँ मजदूर थोड़े मंहगे जरूर हो जाएँगे, न्याय के लिए ये न्याय के लिए जरूरी भी है.
(4) यह तर्क ए-बी- संवेदी चेतना की स्वाभाविक उपज है।
(1) वोटरशिप केवल वोट देने वालों को ही मिलेगी तो क्षेत्र के दबंग लोग तमाम मजदूरों को मतदान के दिन छुट्टी ही नहीं देंगे. नौकरी जाने का खतरा देखकर तमाम लोग मतदान करने जा ही नहीं पाएंगे। इससे मतदान प्रतिशत नीचे गिर जायेगा.
(2) आपसी दुश्मनी साधने के लिए कुछ लोग अपने शत्रुओं को मतदान केन्द्र पर न पहुंचने देने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, यानि घर-घर का झगड़ा मतदान केन्द्र तक पहुंच सकता है, इसलिए वोटरशिप की 5-10 प्रतिशत रकम के भुगतान के लिए मतदान करने की शर्त तो जोड़ी जा सकती है, पूरी रकम के साथ यह शर्त जोड़ना अनुचित होगा।
(1) प्राणरक्षा के लिए आवश्यक न्यूनतम आवश्यकताओं वाली यह सोच वस्तुतः मतकर्त्ताओं को घरेलू नौकर या घरेलू जानवर के रूप में देखने की मान्यता से निकली सोच है. न्यूनतम आवश्यकतों को पूरी करने की सोच एक सामंतवादी सोच है, जिसमें यह मान्यता निहित होती है कि "राजा का फर्ज है कि प्रजा के घर में नजर रखे कि उन सबके घर रात में चूल्हा जल रहा है या नहीं"? प्रजातंत्र में प्रजा राजा के चूल्हे पर नजर रखती है।
(2) न्यूनतम आवश्यकता की वकालत करने वाला व्यक्ति या तो बहुत भोला होगा या फिर वोटरशिप के विरुद्ध मीठा जहर दे रहा होता है.
(3) यदि न्यूनतम आवश्यकतों सकल घरेलू उत्पाद और आय से नहीं जुड़ी होंगी, तो एक हास्यास्पद स्थिति पैदा हो जायेगी. इसमें औसत आमदनी बढ़ती चली जायेगी किन्तु न्यूनतम रकम स्थिर बनी रहेगी. यदि सकल घरेलू उत्पाद से यह रकम जुड़ी होगी, तो इसे न्यूनतम आवश्यकता कहने की बजाय न्यूनतम हिस्सा कहना ही उचित होगा। या न्यूनतम समानता रेखा कहना ही उचित होगा।
(4) यह एक एक्सपायर दवा की तरह है.
(1) केन्द्रित अर्थव्यवस्था को किसी व्यक्ति ने नहीं, समय-समय पर होने वाले तकनीकी आविष्कारों ने पैदा किया है.
(2) यह तर्क एक दक्षिणपंथी आर्थिक सोच की स्वाभाविक उपज है। आनुवंशिक कारणों से कुछ लोगों को अतीत की आर्थिक सभ्यता मनमोहक लगती है। विकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली का तर्क इस तरह के आनुवंशिक मोह से प्रेरित हो सकता है।
(3) विकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली तभी सम्भव है, जब उत्पादन व्यवस्था से बिजली, पेट्रोलियम जैसे ऊर्जा के स्रोतों, नहर, सड़क, रासायनिक उर्वरक, जैसी चीजों कोअर्थव्यवस्था से अवकाश दे दिया जाये। यही चीजें उत्पादन प्रणाली को केन्द्रीकरण की तरफ ले जाती है। ऐसा अतीत में उसी समय सम्भव या, जब जनसंख्या बहुत कम थी व ऊर्जा का प्रमुख ड्डोत मानव श्रम व पशु श्रम ही था।
(4) यदि इस तर्क के पीछे जन कल्याण की नियति है तो केंत्रित उत्पादन प्रणाली का लाभ जन जन तक यानी विकेन्द्रित इकाइयों तक पहुचाने के लिए वोटरशिप अधिकार की मांग करना ही ठीक है.
(1) अर्थशाÐ की पुस्तकें पढ़ने वाले व उन पुस्तकों को पढ़ाने वाले अगर अर्थशास्त्री माने जायेंगे, तो दर्शनशास्त्र को पढ़ने वाले व पढ़ाने वालों को दार्शनिक कहना पड़ेगा। अगर इनको दार्शनिक कह दिया जायेगा, तो रूसो, प्लेटो, मार्क्स, जैसे दार्शनिकों को क्या कहा जायेगा?
(2) अर्थशास्त्र विषय का अध्यापन करने वाले देश के सभी लोगों से गुप्त मतदान कराया जाये, तो सारा मत वोटरशिप के प्रस्ताव के विरुद्ध पड़े। अगर कुछ मत वोटरशिप के पक्ष में पड़ गया, तो वोटरशिप के समर्थकों को अर्थशास्त्र कहा जायेगा या विरोधियों को?
(3) राजसत्ता अपने स्वभाव के अनुसार पालतू अर्थशास्त्री लोगों का एक वर्ग रखती है, जिसे शिक्षक या अधिकारी की पदवी देकर नियमित भुगतान करती है। इसलिए ऐसे लोगों द्वारा प्रचारित निष्कर्ष स्वार्थ का निष्कर्ष होता है, इसे शास्त्र का निष्कर्ष मानने की भूल नहीं करनी चाहिये।
(4) वोटरशिप का प्रस्ताव चूंकि लोगों के जीवनाधिकार से संबंधित गंभीर मामला है इसलिये इस पर अंतिम फैसला या तो निष्पक्ष जनमत संग्रह से हो सकता है
(1) यदि कुछ एजेन्सियों का छल और धोखा मान भी लिया जाए, तो भी पूरे देश में निजी स्वामित्व व उत्तराधिकार के कानूनों के कारण खाली पड़ी उपयोग से वंचित जमीनों, मशीनों, मकानों यातायात के साधनों, पूँजी के अन्य रूपों को धोखा और भ्रम नहीं कहा जा सकता है। ये चीजें ठोस सच्चाई है.
(2) अगर राष्ट्र की औसत आय आंकड़ों की एक धोखाधड़ी है, तो राष्ट्र का औसत कर्ज भी एक भ्रम है।
(3) अगर आंकड़े जग्लरी है, तो दूसरी सम्भावना यह भी है कि राष्ट्र की औसत आय, जितनी आंकड़ों में बताई जाती है, यह रकम वास्तव में उससे कई गुना अधिक भी हो सकती है
(1) पैसा सब कुछ सिखा देता है। ए-टी-एम- चलाना भी सिखा देगा।
(2) आदिवासी व पिछडे़ इलाके के लोगों की काबिलियत साबित हो चुकी है। इसलिए उनकी साक्षरता पर तो सवाल खड़ा किया जा सकता है, उनके विवेक पर सवाल खड़ा करना और स्वयं को समझदार समझना एक भ्रमपूर्ण निष्कर्ष है।
(1) कई वर्ष तक बुद्धिजीवियों के साथ विचार-विमर्श, चिन्तन-मनन व सेमिनारों-जन सभाओं का सिलसिला चलाने के बाद ही वोटरशिप का मामला संसद तक पंहुचा. दोबारा यह सब प्रक्रियाएं दोहराना तर्कासंगत नहीं होगा। यह उसी प्रकार है जैसे डाक्टरेट की डिग्री ले चुके व्यक्ति से फिर से प्राइमरी स्कूल में पढ़ने की अपेक्षा की जाये।
(2) देशव्यापी सेमिनारों व जनसभाओं से अनुभव किया गया कि वोटरशिप के प्रस्ताव पर ध्रुवीकरण न जाति, न संप्रदाय, न भाषा, न क्षेत्र, न प्रदेश, न लिंग, न उम्र और न ही दल के आधार पर हो रहा है। अपितु इस प्रस्ताव पर ध्रुवीकरण मानव के सूक्ष्म शरीर में संचरित ए-बी- व ओ- खूनों के धारकाें के बीच हो रहा है। यहाँ तक कि पति-पत्नी इस विषय पर अलग राय रखते हैं, भाई-भाई भी इस विषय पर अलग राय रखते हैं।
(3) वोटरशिप के विषय में जनजागरण का कार्य वर्तमान संघ सरकार के सूचना व प्रसारण मत्रांलय का और स्वास्थ्य व मानव संसाधन मंत्रलय का है। उन विभागों व मंत्रलयों द्वारा, जिनके उद्देश्य पूरा करने में वोटरशिप के प्रस्ताव से मदद मिलती हैं, उन्हें सरकारी मशीनरी द्वारा संगोष्ठी व जनप्रशिक्षण के कार्यक्रम उसी तरह चलाना चाहिये, जैसे सरकार एड्स व पोलियो जैसी बीमारी के उन्मूलन के लिए जागरुकता के कार्यक्रम चलाती है।
(4) वोटरशिप पर गठित संसद की गोयल कमेटी नें बुध्धिजीवियों के साथ विचार विमर्श करके रिपोर्ट बना दिया है. अब दोबारा से वही काम करने का औचित्य नहीं है.
(1) जनादेश का प्रयास तो तभी हो, जब संसद में पर्याप्त चर्चा हो चुकी हो, वर्तमान संसद से कोई नतीजा न निकल पा रहा हो. संसद की इस कवायद से जनता परिचित हो चुकी हो व चुनावों में इस मामले में अपनी भूमिका महसूस करने लगी हो।
देश में आर्थिक तंगी, कुपोषण, दवाओं के अभाव से हर महीना लाखों लोगों की मृत्यु हो रही है या लोग आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रहे हैैं। वोटरशिप की नियमित रकम इन लोगों की जान बचाने की औषधि है और यह जीने के अधिकार का साधन है। उन्हें इस साधन से वंचित करने का मतलब, उन्हें जीवन से वंचित करना है।
(2) जनादेश लेने की वकालत करने वालों को यह भी घोषित करना चाहिए कि इस प्रक्रिया में होने वाले विलंब की अवधि में होने वाली उक्त मौतों के बदले क्या वे स्वयं फांसी पर चढेंगे या आजीवन कारावास भुगतेंगे?
(3) वोटरशिप लागू होने से आम नागरिकों, श्रमिकों व किसानों जैसे उन लोगों का वास्तविक लाभ है, जो पहले से ही पैसे से वंचित करके रखे गए हैं। जब इनके पास पैसा ही नहीं है, तो ये वोटरशिप की आवाज उठाने वाले को चन्दा कहाँ से देंगे, और यदि चंदा नहीं दे सकते तो वोटरशिप के पक्ष को जनता के बीच प्रचार कौन करने जाएगा। जब प्रचार ही नहीं होगा, तो जो जनादेश मिलेगा, वह जनादेश नहीं, चंदा देने वालों का चंदादेश होगा।
(4) दस दिन से भूखे आदमी को जब हृष्ट-पुष्ट आदमी से लड़ने के लिए कुश्ती कराई जाएगी, तो दस दिन से भूखा आदमी हारेगा ही, लेकिन उसकी हार से उसकी कमजोरी का नतीजा निकालना गलत होगा।
चुनाव की बजाय जनमत संग्रह से ही असली जनादेश सामने आ सकता है। सबसे बेहतर स्थिति तो यह होगी कि देश के अधिकांश परिवारों में आ चुकी वित्तीय आपदा को देखते हुए सबसे पहले संविधान के अनु0-352 के अंतर्गत वित्तीय आपातकाल लागू किया जाए, फिर राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत पूर्णतः सरकारी खर्चे पर वोटरशिप के मुद्दे पर जनमत संग्रह करवाया जाए, और यह सब तत्काल किया जाए,
(1) सरकारी कर्मचारियों के संगठन, उद्योगपतियों के संगठन, विश्व व्यापारियों के संगठन, हर शहर-बाजार में पफ़ैले व्यापारियों के संगठन, विविध जातियोें व सांप्रदायों की वकालत करने वाले राजनैतिक दल दबाव समूहों के ही उदाहरण हैं।
(2) यदि निर्धन मतकर्त्ता भी संगठित होकर राज्य के फैसलों को प्रभावित कर सकें, तो राज्य का फैसला अधिक लोकतांत्रिक गुणों वाला हो जाएगा। इसलिए संभावित नया दबाव समूह निंदा का विषय नहीं, अपितु स्वागत का विषय है।
(3) वोटरशिप विश्व अर्थव्यवस्था की निर्माण प्रक्रिया में उजड़ने वालों द्वारा आत्मरक्षा में राज्य के सम्मुख लगाई गई तकनीकी गुहार है, जो अपनी दर्द व दवा दोनों की अभिव्यक्ति कर रहा है।
(1) जो व्यक्ति व जो राष्ट्र लोभ की भावना पर आधारित बाजार व्यवस्था को चाहे-अनचाहे स्वीकार कर चुका हो, और इस बाजार के द्वारा पैदा होने वाली भीषण आर्थिक विषमता को स्वीकार कर चुका हो। ऐसा व्यक्ति व ऐसा राष्ट्र समाज में न्याय व समता कायम करने वाले वोटरशिप के प्रस्ताव को खारिज नहीं कर सकता।
(2) लोभ एक कांटा है जो मानवता के पांव में चुभ गया है। इस कांटे को लोभ के ही दूसरे कांटे से निकालने का प्रयास किया जा रहा है.
(3) बाजारवादी लोग काम करने की शर्त (चाहे बलात्कार्य ही सही) पर ही श्रमिकों को पैसा देने की नीति पर पूरी कट्टरता से चिपके हुए हैं। इस नीति को जब पूँजीपतियों पर लागू करना होता है, तो ऐसे लोग आंख बंद कर लेते हैं। ये लोग पूँजीपतियों को मिलने वाले ब्याज, किराया, उत्तराधिकार जैसे बिना परिश्रम के पैसे का समर्थन तो करते हैं। किन्तु जब श्रमिकों को ऐसा ही धन यानि-वोटरशिप देने की बात आती है, तो उत्पादन गिर जाने का रोना रोने लगते हैं। ऐसे लोग अधिक से अधिक उत्पादन का तो समर्थन करते हैं। लेकिन जब इस उत्पादन का उपभोग करने के लिए सभी लोगों को आता देखते हैं, तो छाती पीटने लगते हैं।
(4) उत्तराधिकार का समर्थन व मतकर्त्तावृत्ति का विरोध करने वालों के कारण ही कुछ हाथों में धन का केन्द्रीकरण होता है। धन का यही केन्द्रीकरण पर्यावरण विनाशक तकनीकी व विलासिता की वस्तुओं के मनमाने उत्पादन के लिए जिम्मेदार है। उत्तराधिकार का समर्थन स्वयं लोभ का एक घातक उदाहरण है।
(5) अंग्रेजों के जाने से भारत के नेताओं के राजनैतिक सत्ता का लोभ पूरा हुआ। उन्होंनं सांसद, विधायक, मंत्री बनकर आजादी का पूरा लुत्फ उठाया। अब मतकर्त्तावृत्ति के माध्यम से एक-एक व्यक्ति आजादी का आनंद उठाए, तो गलत क्या है? आजादी प्राप्त हो जाने के बाद नेताओं का एम- पी-, एम- एल- ए- बनने का लोभ पूरा हो जाएगा, क्या इसी तर्क पर राजनैतिक स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को आजादी की लड़ाई रोक देनी चाहिए थी? क्या आजादी की लड़ाई लड़कर उन्होनें देश में लोभ को प्रोत्साहन दिया?
(1) वोटरशिप की राशि देने के बाद न तो किसी एक हाथ में इतनी बड़ी राशि इकठ्ठा होगी_ न तो पर्यावरण की विध्वंसक तकनीकी का विकास ही होगा।
वोटरशिप लागू न हो और पर्यावरण का विनाश रुक जाये, वह ऐसा ही सपना देख रहा है, जैसे गुलाब का पौधा तो रहे, बस उसके कांटे खत्म हो जाए।
(2) पर्यावरण की सुरक्षा स्थानीय मुद्दा नहीं है, विश्वव्यापी मुद्दा है। विश्वव्यापी समस्याओं का हल करने के लिए न तो कोई विश्वव्यापी संसद है, न तो कोई विश्वव्यापी सरकार है। जब तक निर्धनता व शांति पर विश्वव्यापी समझौता यानि गैप समझौता नहीं होता, तब तक पर्यावरण की सुरक्षा करने वाली प्रभुसत्ता को प्रभुसत्ताधारी सुलभ नहीं हो जाता और पर्यावरण सुरक्षा की चिंता एक लकवाग्रस्त व्यक्ति की चिंता बनी रहेगी।