वोटरशिप के अलावा विकास में भागीदारी के अन्य विकल्पों की परीक्षा
(1) कथित कल्याणकारी सरकार के काम करने का तरीका इस उदहारण से समझा जा सकता है. आबकारी विभाग पर टैक्स का पैसा खर्च करके सरकार लोगों को शराब पिलाने का इंतजाम करती है और मद्य निषेध विभाग पर टैक्स का पैसा खर्च करके कहती है कि-‘शराब मत पिओ’। इसी नीति पर चलते हुए एक तरफ सरकार गरीबी उन्मूलन की तमाम योजनायें चलाती है. दूसरी तरफ सस्ते मजदूरों की सुलभता बनाये रखने के लिए अपने देश के अधिकांश परिवारों को जानबूझकर आर्थिक तंगी में रखती है. जिससे निर्यात बढ़ता रहे.
(2) लोकतंत्र के मूल्यों पर बना राज्य तो विकास में सभी लोगों को भागीदारी दिला सकता है. किन्तु लोकतंत्र के नाम पर आर्थिक सत्ताधीशों की तानाशाही वाली वर्तमान राजव्यस्था के वश में भी निर्धनता उन्मूलन करना नहीं है, विकास में सभी लोगों को भागीदारी दिला पाने की बात तो बहुत दूर की है?
(3) जो राज्य लोकतंत्र के मूल्यों पर नहीं बना होगा, वह सभी लोगों को भागीदारी दिला नहीं सकता. केवल सम्पूर्ण विश्व की एक साझी सरकार ही लोकतंत्र के मूल्यों पर बन सकती है. क्योकि यही सरकार निर्यात के लिए अपने देश के ज्यादातर लोगों को कृतिम आर्थिक तंगी में रखने की विवशता से मुक्त हो सकती है.
(1) अमीर लोगों की दयालुता हाथी के सूँड की तरह होती है। यह सूँड निर्धन आदमी की कातर आंखों को देखकर उसकी तरफ खिंच जाती है। अमीर आदमी निर्धन की झोली में वह रकम डालता है, जिससे उसकी दयालुता की सूँड वापस उसके पास आ जाये। स्पष्ट है कि अमीर का दान अपनी दयालुता की सूँड के दर्द से प्रेरित है, निर्धन की जरुरत से नहीं.
(2) निर्धनों को अमीरों के दान के भरोेसे छोड़ देने पर निर्धनता तो गई नहीं, अपितु अमीरों ने निर्धनों की सेवा के नाम पर टैक्स बचाकर और भी अधिक अमीरी हासिल कर ली.
(3) लंगरों, मंदिरों, मस्जिदों, आश्रमों में जहां बेसहारा लोगों को भोजन कराया जाता है, यहाँ भेाजन करने वाले की शरीर तो जिन्दा रहता है पर स्वाभिमान मर जाता है।
(4) अहंकार के वशीभूत ये लोग कुछ निर्धनों को प्रजा समझकर व खुद को राजा समझकर भोजन कराते हैं। यह राजशाही की मानसिकता का अवशेष है, जो लोकतंत्र के नीति निर्धारण में स्वीकार नहीं हो सकता।
(1) यदि केवल दो ही विकल्प हों. पहला- 95 प्रतिशत लोगों पर 5 प्रतिशत लोगो की तानाशाही और दूसरा- 5 प्रतिशत लोगों पर 95 प्रतिशत लोगो की तानाशाही. कोई एक विकल्प चुनना हो, तो कोई भी न्यायिप्रय व्यक्ति 95 प्रतिशत लोगों की तानाशाही वाली राजव्यवस्था अपनाना पसन्द करेगा।
(2) जब तक कि वोटरशिप का विकल्प खारिज नहीं किया जाता, जब तक मार्क्सवादी विकल्प निर्धनता उन्मूलन का और विकास में भागीदारी का उपाय नहीं हो सकता। इस विषय में और अधिक जानकारी के लिये देखिये नीचे दिया गया लिंक-
मार्क्सवाद बनाम वोटरशिप
(1) इस विचारधारा में स्पष्ट नहीं है कि अर्थव्यवस्था में मशीनों की मौजूदगी होनी चाहिए या नहीं गांधीवादी लोग मशीन विहीन उत्पादन प्रणाली अपनाने के प्रयोग करते रहते हैं। किन्तु जब उनसे स्पष्ट पूंछा जाता है कि-‘मशीनें हटा दें?’ तो वे मशीनों का आग्रह यह कहकर करने लगते हैं। कि-‘‘गांधी जी ने फलां जगह कहा है कि वे मशीनों के विरुद्ध नहीं है।’’।
(2) यदि गांधीवादी लोग मशीनों के हिमायती है, तो मशीन के परिश्रम से हुए पैदावार पर स्वामित्व किसका है-मशीन मालिक का, सरकार का या मतकर्त्ता का? यह नहीं बताते।
(3) अगर गांधीवादी मशीन विहीन उत्पादन प्रणाली के समर्थक हैं, तो यह प्रणाली किसी भी रूप में उत्पादन के वर्तमान स्तर को बनाये रखने में सक्षम नहीं है। अगर मशीनाें को बन्द कर दिया जाये व हल-बैल प्रणाली अपना ली जाये, तो जनसंख्या के कम से कम 90 प्रतिशत हिस्से को भूखे मार देना पड़ेगा।
(4) गांधीवादी अर्थव्यस्था का आग्रह एक दक्षिणपंथी अर्थव्यवस्था का आग्रह है, जिसकी भावना तो स्वीकार्य हो सकती है, साधन नहीं। चूंकि दक्षिणपंथी व्यक्ति के चेतना का फोकस अतीत के किसी खास कालखण्ड में स्थिर होता हैं, इसलिए उसी कालखण्ड की अर्थव्यवस्था, राजव्यस्था व समाज व्यवस्था की वकालत वह इस अंदाज में शुरु कर देता है, जैसे उसे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई हो। इतिहास के जिस कालखण्ड की वकालत वह करता है, उस कालखण्ड की अच्छाइयों का तो प्रदर्शन करता है किन्तु बुराइयाें पर उसका ध्यान नहीं जाता।
(1) ‘ऊपर से कुछ टपके तो मिले’-की उम्मीद में आज निर्धन आदमी पूँजीपतियों की ओर देख रहा है. राजशाही लागू हो जाने पर वह राजपरिवार की तरफ देखेगा। न उसे बीते कल में कुछ मिला, न आज कुछ मिल रहा है व न उसे आने वाले कल में कुछ मिलेगा।
(2) राजशाही वाली व्यवस्थाओं में तो कल्याणकारी लोकतंत्र की तुलना में अधिक लोग निर्धन दिखाई पड़ते है।
(3) राजशाही में राजा की किसी न किसी पीढ़ी में दयालु राजा के पैदा होने की संभावना अवश्य बनती है। 200-400 साल में एक दयालु राजा आ सकता है. जबकि वर्तमान के कथित लोकतंत्र में तो आर्थिक क्रूरता का आचरण करने वाले व्यक्ति के लिए सदा-सदा के लिए सिंहासन आरक्षित कर दिया गया है। यद्यपि वर्तमान लोकतंत्र के क्रूर राजा के लिये यह योग्यता भी निर्धारित है कि वह अपनी वाणी में दयालुता का अभिनय करने में निपुण हो। 200-400 साल का इंतजार उचित नहीं है.
(1) जब तक विश्व बाजार व्यवस्था की रक्षा के लिए विश्व व्यापार संगठन खड़ा है, तब तक के लिए इस तर्क की गुंजाइश खत्म हो गई है।।
(2) लघु उद्योगों द्वारा उत्पादित करने के लिए कुछ चीजों का आरक्षण तो बड़ी मुश्किल से सम्भव भी हो सकता है लेकिन उनकी बिक्री लगभग असम्भव काम है, क्योंकि वही सामान बड़ी मशीनों द्वारा बनके दूसरे देशों से आयातित हो सकता हैै।
(3) जिस प्रकार कल पुर्जे अलग-अलग हाथों में होने पर इंजन पानी नहीं दे सकता, उसी प्रकार उत्पादन के साधनों का वितरण कर देने से उत्पादन का वर्तमान स्तर बरकरार नहीं रखा जा सकता।
(4) विकेद्रित उत्पादन व वितरण प्रणाली की वकालत करने वाले जाने-अनजाने दक्षिणपंथी अर्थव्यवस्था अपनाने व सामंतवादी अर्थव्यवस्था व राजव्यवस्था की वकालत कर रहे होते है, जो एक दलदल से निकालकर दूसरे दलदल में ढकेलने वाली है। यद्यपि उन्हें इसका भान नहीं होता।
(5) विकेंन्द्रित अर्थव्यवस्था की वकालत करने वाले लोग उस संस्थागत अधःसंरचना की जानकारी नहीं देेतेे, जिसके द्वारा विकास में सबको भागीदारी मिल जाये, उत्पादन का वर्तमान स्तर बनाये रखना भी सम्भव हो, निर्धनता भी खत्म हो जाये, सांस्कृतिक विविधता के पालन-पोषण की संभावना भी बनी रहे, उपभोक्तावाद न पफ़ैले और धन का केन्द्रीकरण भी न हो।
इस विषय में विस्तार से जानने के लिए देखें नीचे दिया गया लिंक-
विकास में भागीदारी के लिए मार्क्सवाद की परीक्षा Note- content comming soon.