वोटरशिप पर अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (विकास संबंधी)
(1) चूहे खाने के बाद बिल्ली के बढ़े वजन को विकास माना गया। बिल्लियों का वजन बढ़ाने में कितने चूहे मारे गये, उन चूहों के बेइंतहा दर्द की कोई गणना नहीं की गई। विकास की वर्तमान परिभाषा में श्रमिक चूहों की जगह खड़ा है और इस तरह के विकास की वकालत करने वाले लोग बिल्लियों की जगह खड़े है।
(2) अतीत में मानव से मानव में इस हद तक राजशाही व्यवस्था भेद करती थी, जितना बिल्ली और उसके शिकार चूहे जैसी दो प्रजातियों में भेद होता है, कृषक व उसके बैल में भेद होता है या फिर धोबी और उसके गधे में भेद होता है। विकास की उक्त परिभाषा धनधारी व श्रमिक में इसी तरह का भेदभाव करती है। जहाँ सभी को एक वोट देने की राजनीतिक समानता प्राप्त हो वहां यह भेदभाव एक अपराधिक कृत्य है.
(3) विकास की अंतर्राष्ट्रीय परिभाषा प्रतिव्यक्ति उपभोग सामग्री की रकम पर आधारित है, जबकि यह वोटरशिप की रकम पर आधारित होनी चाहिए।
(4) केवल शहरों की चकाचौंध, चौड़ी सड़कें, फ्रलाईओवर, पुल, बहुमंजिला इमारतें, चमचमाती कारें, बिजली व पानी की बर्बादी करने वाले महंगे रखरखाव वाले पार्कों, विलासिता व सौन्दर्य प्रसाधन की महंगी चीजों को ही विकास कहनएक अपराधिक कृत्य है। विकास की इस परिभाषा में आर्थिक विषमता की पीड़ा मापने का कोई सूत्र शामिल नहीं है।
(5) जिन सामानों व सेवाओं के उत्पादन का उपभोग करने का अवसर जितने अधिक नागरिकों को मिलता है, उस सामान व सेवा का लोकतांत्रिक विकास का मूल्य उतना ही अधिक होता है। जिन नागरिकों को यह अवसर प्राप्त होता है, उन्हें उपभोग का आनन्द प्राप्त होता है, जो नागरिक उपभोग के लिए ललचाते रहते हैं, उन्हें आर्थिक विषमता की पीड़ा सहनी पड़ती है।।
(6) अगर विकास के वितरण में भौगोलिक न्याय हो भी गया किन्तु अन्त्योदयी न्याय न हुआ, और केवल ऊँची जाति के लोगो की ही हवेलियां महानगरों में भी, गाँवों में भी खड़ी हो गईं, तो समझिये विकास का वितरण सामाजिक न्याय से विहीन ही रहा।
(7) अपनी जाति, धर्म, क्षेत्र या अपने देश के कमजोर लोगों के हिस्से के विकास का धन अपने ही नेता लोग हड़प लेंगे. अगर विकास के वितरण में भौगोलिक न्याय हो भी गया किन्तु अन्त्योदयी न्याय न हुआ, केवल ऊँची जाति के लोगो की ही हवेलियां बनीं वह भी केवल महानगरों में भी - तो समझिये विकास का वितरण सामाजिक न्याय से विहीन ही रहा।
(8) पारिश्रमिक की बाजार दर से प्राप्त हुआ धन मजबूरी की दर से प्राप्त श्रमिक का पारिश्रमिक तो कहा जा सकता है परन्तु सकल घरेलू विकास में प्राप्त उसका हिस्सा नहीं कहा जा सकता। इसे बैल का भूसा तो कहा जा सकता है, गेहूं में हिस्सेदारी नहीं। इसलिये यदि राज्य विकास में श्रमिक का हिस्सा नकद रकम के रूप में वापस नहीं करता, तो यह एक आर्थिक अन्याय करने वाला विकास का मॉडल होगा।
(9) यह कुतर्क ए0बी0 संवेदी चेतना की स्वाभाविक उपज है।
(1) सकल घरेलू उत्पाद और आय की आधी रकम मतकर्त्ताओं की साझी आवश्यकता के उत्पादन हेतु निवेश के लिए सुरक्षित रहेगी व आधी रकम मतकर्त्ताओं के निजी उपभोक्ता वस्तुएं उत्पादित करने के लिए आरक्षित हो जायेगी.
(2) पारिश्रमिक की बाजार दर से प्राप्त हुआ धन मजबूरी की दर से प्राप्त श्रमिक का पारिश्रमिक तो कहा जा सकता है परन्तु सकल घरेलू विकास में प्राप्त उसका हिस्सा नहीं कहा जा सकता। इसे बैल का भूसा तो कहा जा सकता है, गेहूं में हिस्सेदारी नहीं। इसलिये यदि सरकार विकास में श्रमिक का हिस्सा नकद रकम के रूप में वापस नहीं करती, तो यह एक आर्थिक अन्याय करने वाला विकास का मॉडल होगा।
(3) बाजारू अर्थव्यवस्था में उद्यमी को निवेश की प्रेरणा न तो राष्ट्रहित से मिलती है, न तो लोकहित से। अपितु जेब में पैसा रखने वाले खरीदारों की मांग से मिलती है। वोटरशिप की रकम के कारण हर व्यक्ति खरीदार हो जायेगा। इसलिये निवेश अब अल्पसंख्यक धनवानों की इच्छा की बजाय "लोक इच्छा" से संचालित होने लगेगा। यह निवेश के लोकतंत्रीकरण की घटना होगी। ।
(4) वोटरशिप की रकम मतकर्त्ताओं (वोटरों) के पास जा कर न तो लुप्त हो जायेगी, न मतकर्त्ता इसे जला देंगे, न तो उसे जमीन में दफन कर देंगे और न ही पैसे की यह ऊर्जा नष्ट ही होने वाली है। अपितु इसका स्थानांतरण भर हो रहा है। लोकतंत्र में ऐसा करना ही होगा।
(5) जिस रकम को निवेश की रकम कहा जाता है, वह देश के हाथ में न रहकर कुछ पूँजीधारी लोगों के हाथ में ही रहती है। इन लोगों को देश कहना आँख में धूल झोंकने जैसा अपराध है। निवेश के लिए बचत चाहिए। जब यह रकम सार्वजनिक विकास जैसे सड़क, पुल, अस्पताल, रेल, विद्युत गृह , स्कूल आदि चीजों के लिए ले ली जाती है, तो इन चीजों पर पूरी रकम खर्च नहीं की जाती. कभी दलाली के रास्ते व कभी विकास के पुरस्कार स्वरूप, कभी ऊँचे वेतन के रास्ते, कभी पूँजी के ब्याज, बिल्डिंग और वाहनों के किराये, उत्तराधिकार और बीमे के भुगतान के रास्ते व भ्रष्टाचार के तमाम रास्तों से विकास की इस धनराशि कुछ मुठ्ठी भर लोगों के आलीशान महल बनाते है व उनकी विलासिता का साधन जुटाने में इस्तेमाल किये जाते हैं। ऐसी दशा में निवेश के लिए त्याग सभी करें, केवल श्रमिक ही क्यों?
(1) जब तक पूरे विश्व की एक सरकार नहीं बनाती तब तक सबको परंपरागत अर्थों में काम दे पाना संबव नहीं है.
(2) आधुनिकतम तकनीक श्रम शक्ति को विस्थापित करती है। आदमी से काम कराने से ठेकेदार को घाटा होता है, मशीन से काम जल्दी होता है व मुनाफा भी। इसलिए ठेकेदार लोग चुनाव से बनाने वाली सरकारों की बात मानेंगे ही नहीं।
(3) आर्थिक तंगी की मजबूरी का फायदा उठाकर और श्रमिक की अपनी इच्छा के बिना उअससे कराया गया कार्य बलात्कार्य की कोटि का रोजगार है। बलात्कार जरी नहीं रखा जा सकता।
(4) वोटरशिप की रकम लोगों के हाथ को भले ही रोजगार न दे सके, 100% लोगों के दिमाग को रोजगार दे देगी।
(5) वोटरशिप से सामाजिक क्षेत्र में रोजगार पैदा हो जायेगे, कोई शराब छुड़ाने के काम में लग जायेगा, तो कोई चरित्र निर्माण व राष्ट्र निर्माण के काम मे।
(1) "एक-एक रूपया बांट दिया जाए, तो अमीर आदमी तो गरीब हो जायेगा किन्तु निर्धन आदमी की निर्धनता नहीं जाएगी"। यह बहुत पुराना कुतर्क है। जब इस तर्क का जन्म हुआ था, तो पैदावार सौ रूपये की थी और मांगने वाले हजार लोग थे। अब लोहे के हाथों ने और कम्पूटर के दिमागों ने इस स्थिति को पलट कर रख दिया है। अब मांगने वाले लाख लोग हैं और पैदावार खरबों रूपये की है। इसलिए जहां पहले पैसा बँटता, तो एक-एक रूपया हाथ लगता। वहीं अब कई हजार रूपये हर महीने हर आदमी के हाथ लगेंगे। यह रकम निश्चित रूप से उनकी निर्धनता खत्म कर सकती है और उनके शिक्षा व स्वास्थ्य का स्तर ऊपर उठा सकती है।
(2) अल्कोहल 10 ग्राम तक औषधि होता है, इसके ऊपर की मात्र का सेवन नशाखोरी की लत होती है। इसी प्रकार विकास भी एक सीमा तक ही विकास होता है, इसके ऊपर यह कुछ लोगों की जैविक नशाखोरी होता है। अमीरों की नशा तुल्य ए अय्यासी भले ही चली जाये, उनकी अम्मीरी नहीं जायेगी। क्योकि वोटरशिप विषमता को पूरी तरह समाप्त नहीं करता।
(3) यदि विकास की चिंता से कुछ लोगों के हाथों में राष्ट्र की विशाल धनराशि रखी जाती है, तो इस राशि को इसके धारक ‘अपना पैसा’ या ‘निजी सम्पत्ति’ क्यों कहते हैं? एक ही धन को दो नाम क्यों दिया जाता है? देना यह साबित करता है कि इस राशि के धारक को विकासकर्ता कहने वाला व्यक्ति स्वयं भ्रमित हैे।
(4) उद्योगपति लोग जनता को रोजगार देते हैं। इसलिए समाज का पैसा उद्योगपतियों के पास ही रहना चाहिए। यह तर्क निरर्थक है। क्योंकि विश्व अर्थव्यवस्था के वर्तमान युग में जो कम्पनी कम से कम मजदूरों से और ऑटोमैटिक मशीनों से काम करवायेगी, उसी का सामान सस्ता पड़ेगा और बाजार में बिकेगा। जो कंपनी रोजगार देने की प्राथमिकता को लक्ष्य बनाकर उद्योग लगाएगी, उसके द्वारा उत्पादित सामान व सेवाएं बाजार में बिक ही नहीं सकतीं। यदि कोई व्यक्ति 10 करोड़ रूपया निवेश करके 100 लोगों को रोजगार देता है, तो यह 10 करोड रूपया उसके पास स्थानांतरित कर दिया जाना चाहिए, जो 10 करोड़ रूपए में 1000 लोगों को रोजगार दे दे। किन्तु इस तरह की परीक्षा लेने का कोई कानून और व्यवस्था नहीं है.
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