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Marxism

 

वोटरशिप और मार्क्सवाद की तुलना

1. मार्क्सवाद और वोटरशिप की विचारधारा में अंतर क्या है?

(1) मार्क्सवाद पूर्ण आर्थिक समानता का लक्ष्य पाना चाहता है। जबकि वोटरशिप का प्रस्ताव न्यूनतम आर्थिक समता का लक्ष्य प्राप्त करने का उपाय है।

(2) मार्क्सवाद निर्धनों की तानाशाही आवश्यक मानता है। जबकि वोटरशिप के प्रस्ताव के पीछे मान्यता यह है कि राजनैतिक लेाकतंत्र के नाम से चल रही अमीरों की तानाशाही केवल उसी दशा में गलत हो सकती है, जब पूँजीवादी लोग न्यूनतम आर्थिक समानता का वोटरशिप का यह प्रस्ताव भी ठुकरा दें।

(3) पूँजी के धारकों को ही आधिकांश मार्क्सवादी लोगों द्वारा ‘पूँजीवादी’ मान लेने की धारणा चल पड़ी है। जबकि वोटरशिप के सिद्धांतकारों का निष्कर्ष यह है कि पूँजी रूपी फीते से किसी व्यक्ति की योग्यता मापना कुछ लोगों का जन्मजात गुण होता है। ठीक वैसे ही जैसे कुछ लोग अन्य लोगों का मूल्यांकन सौन्दर्य से करते है, कुछ लोग बाहुबल से करते है, कुछ लेाग ज्ञानबल से करते ह व कुछ लोग जनबल से करते है।

(4) सभी अमीर लेागों को पूँजीपति तो कहा जा सकता हैं, पूँजीवादी नहीं। जबकि आर्थिक क्रूरता पूँजीपति को पसंद नहीं होती, पूँजीवादी को पसंद होती है, जो निर्धनता के स्थायित्व का कारण है।

(5) मार्क्सवादी लोग राज्य को सम्पत्ति का मूल स्वामी मानते है, पूँजीवादी लोग पूँजीपति को सम्पत्ति का मूल स्वामी मानते है। जबकि वोटरशिप के माध्यम से आर्थिक लोकतंत्र व वोटरशिप के सिद्धांतकार राष्ट्र के मतकर्त्ताओं को सम्पत्ति का मूल स्वामी मानते हैं।

(6) मार्क्सवादी लोग कारखाने के मजदूरों को केन्द्र में रखकर आर्थिक न्याय का तानाबाना बुनते है, जबकि वोटरशिप के सिद्धांतकार मतकर्त्ता को केन्द्र में रखते है।

(7) संभवतः उक्त कारणों से ही भारत की मार्क्सवादी पार्टियों ने सन 2005-08 के दौरान उस समय असहयोग किया, जब संसद में वोटरशिप अधिकार के लिए सैकड़ो सांसदों ने याचिका प्रस्तुत किया और इस मुद्दे पर संसद में बहस की मांग किया. इन दलों का एक भी संसद याचिका प्रस्तुत करने के लिए तैयार नहीं हुआ.

(8) मार्क्सवादी आर्थिक क्रूरता का कारण पूंजी को मानते है. वोटरशिप की विचारधारा में आर्थिक क्रूरता का कारण एबी मानसिक नस्ल को माना जाता है. एबी मानसिक नस्ल के सभी व्यक्ति में आर्थिक क्रूरता होती है, चाहे वह व्यक्ति धनवान हो या निर्धन.

2. मार्क्सवाद और वोटरशिप की विचारधाराओं  में समानता क्या है?

(1) मार्क्सवाद और वोटरशिप- दोनों विचाधाराराएं आर्थिक विषमता की पीड़ा के प्रति संवेदनशील है और इस पर लगाम लगाने के पक्षधर है।

(2) मार्क्सवाद और वोटरशिप- दोनों विचाधाराराएं चुनावों को लोकतंत्र की स्थापना का साधन नहीं मानते.

(3) दोनों मार्क्सवाद और वोटरशिप- दोनों विचाधाराराएं मानते है कि चुनाव मात्र अल्पसंख्यक धनवानों की बहुशंख्यक माध्यम वर्ग और निर्धन वर्ग पर कायम की जाने वाली तानाशाही के साधन भर हैं.

(4) मार्क्सवाद और वोटरशिप- दोनों विचाधाराराएं मात्र पूँजी यानी धन के धारकों का धन ही योग्यता नापने का पैमाना नहीं हो सकता।

(5) मार्क्सवाद और वोटरशिप- दोनों विचाधाराराएं पूँजीपति लोगों की आर्थिक क्रूरता की विरोधी हैं।

(6) मार्क्सवाद और वोटरशिप- दोनों विचाधाराराएं समाज को सम्पत्ति का मूल स्वामी मानते है।

(7) मार्क्सवाद और वोटरशिप- दोनों विचाधाराराएं लोगों की व्यक्तिगत उन्नति को राज्य का उद्देश्य मानते है।

(8 ) वोटरशिप को मार्क्सवाद का समयानुवाद मानने में कोई गलती नहीं है। इसे मार्क्सवाद के प्रतिकूल सिद्ध नहीं किया जा सकता।

 3. क्या वोटरशिप से भारत का रूस जैसा हश्र नहीं हो जायेगा? 

इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए देखे-

विविध प्रश्नोत्तर पृष्ठ पर प्रश्न संख्या – 16

4. क्या मार्क्सवादी  अर्थव्यवस्था अपनाकर विकास में सभी लोगों को भागीदारी दिलाया सकता है? 

(1) मार्क्सवाद चाहता है कि जमीन बंटे, पैसा नहीं. यह उपाय अब अप्रासंगिक हो गया हिया क्योकि अब उत्पादन का प्रमुख साधन जमीन की बजाय मशीन बन गई है।

(2) विश्व व्यापार के अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के कारण कृषि क्षेत्र को संरक्षण दे पाना देशी सरकार के वश के बाहर की बात हो गई है। खेती की छोटी जोतों से होने वाले उत्पादन की लागत अधिक होती है. इसीलिये कीमत भी अधिक होती है. इन उत्पादों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कोई खरीद ही नहीं सकता।

(3) खेती के योग्य व रहन-सहन योग्य जमीनों के क्षेत्रफल में जनसंख्या का भाग दे दें, तो जमीन का बहुत छोटा टुकड़ा एक आदमी के हिस्से लगता है। बिना पूँजी के उस जमीन के टुकड़े का कोई फायदा उसका स्वामी नहीं उठा सकता। जबकि वोटरशिप की रकम से वह अपनी मर्जी की जमीन खरीद सकता है।

(4) जमीन भैस की तरह है, जिसको काटकर उसकी मांस की बोटी से दूध नहीं प्राप्त किया जा सकता। जबकि पैसा दूध की तरह है, उसका बंटवारा सम्भव है। 100 लोगों में 80 भैसें बराबर-बराबर नहीं बांटी जा सकतीं, जबकि 100 लोगों में 80 भैसों का दूध बराबर-बराबर बांटा जा सकता है।

(5) वोटरशिप को मार्क्सवाद का समयानुवाद मानने में कोई गलती नहीं है। इसे मार्क्सवाद के प्रतिकूल सिद्ध नहीं किया जा सकता।

5. क्या मार्क्सवादी राज व्यवस्था अपनाकर विकास में सभी लोगों को भागीदारी दिलाया सकता है? 

(1) मार्क्सवादी जो निर्धनता उन्मूलन को अपना मूल ध्येय मानते हैं, राजसत्ता को यह काम करने के लिए साधन मानते हैं। वे सभी वोटरशिप के प्रस्ताव का समर्थन करेंगे। विरोध केवल वही लोग करेंगे, जो सत्ता को ही साध्य समझते हैं।

(2) कुछ स्वाभिमानवादी मार्क्सवादी भी अपनी निजी आर्थिक उन्नति व निर्धनों के आभासी स्वाभिमान को बढ़ाने में लगे रहते हैं। जातिवादी, सम्प्रदायवादी और राष्ट्रवादी लोगों की तरह निर्धनों की निजी आर्थिक उन्नति ऐसे मार्क्सवादियों का उद्देश्य ही नहीं होता.

(3) स्वाभिमानवादियों को यह समझ में नहीं आता कि जिस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति खराब है, उसका किसी तरह स्वाभिमान सुरक्षित नहीं रह सकता। अन्य लोग उसका मान मर्दन करेंगे ही। ऐसे लोगों के सम्मान की रक्षा केवल इसलिए नहीं हो सकती है कि ‘‘उनके धर्म, जाति या निर्धनों का नेता सत्तासीन है’’। ऐसे राजनीतिज्ञ अपने स्वाभिमान में सबके स्वाभिमान का दर्शन करते है।

(4) चुनाव में भागीदारी या चुनावी व्यवस्था में किसी तरह की आस्था का प्रदर्शन मार्क्सवादी सिद्धांतों से मेल नहीं खाता। फिर भी कुछ मार्क्सवादी लोग चुनाव में भागीदारी रणनीति के तौर पर करते है. किन्तु रण नीति के तौर पर ही सही वोटरशिप अभियान में भागीदारी नहीं करते. इसलिए कुछ मार्क्सवादियों की नियति भी संदेहास्पद है.

(5) आर्थिक अत्याचार करने वाले सम्पन्न लोग जातिवादी व सम्प्रदायवादी स्वाभिमान की कथित लड़ाई लड़ने वाले नेताओं को चंदा देकर समाज को टुकड़ों में तोड़ देते हैं, जिससे आर्थिक हितों के आधार पर ध्रुवीकरण नहीं हो पाती। वोटरशिप प्रस्ताव में प्रस्तावित नकद रकम के प्राप्त होने की सम्भावना को देखने पर लोगों के सामने अपनी जाति-सम्प्रदाय के नेता की अमीरी और स्वयं अपनी अमीरी में से किसी एक पक्ष में खड़ा होने की नौबत आ जाएगी। इससे समाज का आर्थिक ध्रुवीकरण हो जाएगा, जो मार्क्सवादी राजनीति की परम आवश्यकता है। इसलिए वोटरशिप की विचारधारा को मक्स्वादियों द्वारा अपनाया जाना चाहिए, न की वोटरशिप के लिए कम करने वाले लोगों को मार्क्सवाद.

(5) मजदूरों की तानाशाही के नाम पर कोई एबी मानसिक नस्ल का व्यक्ति या कोई राष्ट्रवादी व्यक्ति तानाशाह बन जाये तो मजदूरों की दशा सुधारने की बजाय और भी बिगड़ सकती है. अतः मार्क्सवादी राज व्यवस्था अपनाकर विकास में सभी लोगों को भागीदारी दिलाया सकता.

6. क्या वोटरशिप की योजना पूँजीवाद की रक्षा का उपाय नहीं है?

(1) पूँजीवाद का मूल स्वभाव पूँजीपति का सम्मान करना है, जबकि वोटरशिप का सिद्धांत पूँजीविहीन मतकर्त्ताओं का भी सम्मान करता है।

(2) पूँजीवाद बाजार व्यवस्था को हथियार बनाकर श्रमिक को अपने श्रम की सौदेबाजी करने से वंचित कर देता है। इस प्रकार श्रमिकों के साथ आर्थिक बलात्कार को सुविधाजनक बनता है। मतकर्त्ताओं (वोटरों) को मिलने वाली वोटरशिप की नियमित रकम के कारण श्रमिक कहीं भी काम करने से पहले अपने परिश्रम की सौदेबाजी करेगा। श्रम की सौदेबाजी का मौका मिलते ही मजदूरी की दरें बढ़ जायेंगी। इससे श्रम कानूनों और ट्रेड यूनियन संगठनाें का ध्येय पूरा हो जायेगा। श्रम की सौदेबाजी के लिए सरकारी समर्थन मिलते ही पूँजीवाद का अत्याचार असफल हो जायेगा।

(3) पूँजीवाद वास्तविक मांग को अप्रभावी मांग कह कर अत्याचार की शक्ति हासिल करता है और केवल प्रभावी मांग के लिए ही उत्पादन करता है। वोटरशिप से हुई आय से जनता की वास्तविक मांग को भी प्रभावी मांग का दर्जा मिल जाएगा। इससे पूँजीवादी अन्याय की चूड़ी ही मिस हो जाएगी।

7. क्या वोटरशिप की योजना वैश्वीकरण की रक्षा का उपाय नहीं है?

(1) जैसे लोहा लोहे कोे काटता है, वैसे ही एक तरह के वैश्वीकरण की मनमानी दूसरे तरह के वैश्वीकरण द्वारा ही रोकी जा सकती है।

(2) वोटरशिप की रकम बढ़वाने के लिए बाद में लोग बहुराष्ट्रीय नागरिकता, बहुराष्ट्रीय शासन-प्रशासन और बहुराष्ट्रीय सरकार के गठन की मांग करने लग जायेंगे। ‘‘दुनिया के मजदूरों एक हो’’, यह वैश्वीकरण का ही मार्क्सवादी नारा रहा है।

(3) वर्तमान वैश्वीकरण के खतरों से बचने का एक ही उपाय है कि वैश्वीकरण की न्यायिक रूपरेखा तैयार करके उसके कार्यान्वयन का प्रयास किया जाये।

(4) बाजार का वैश्वीकरण होगा, तो आर्थिक अन्याय बढ़ेगा। राज्य का वैश्वीकरण होगा, तो आर्थिक न्याय बढे़गा। बाजार का क्षेत्रीयकरण होगा, तो आर्थिक न्याय बढ़ेगा, राज्य का क्षेत्रीयकरण यानि छोटे-छोटे राज्य बनेंगे, तो आर्थिक अन्याय बढ़ेगा। ये सूत्र भौतिक विज्ञान के सूत्रें जैसे अकाट्य हैश्रम की सौदेबाजी का मौका मिलते ही मजदूरी की दरें बढ़ जायेंगी। इससे श्रम कानूनों और ट्रेड यूनियन संगठनाें का ध्येय पूरा हो जायेगा। इन निष्कर्षों से स्पष्ट है कि बाजार का वैश्वीकरण होगा, तो पूँजीवाद मजबूत होगा, राज्य का वैश्वीकरण होगा, तो उसकी मनमानी पर लगाम लगेगी। Slot Gacor